हिम्मत और मेहनत ने तराशा तो खदान से हीरा बनकर निकलीं दीपा

पत्थरों को तोड़ते-तोड़ते दौड़ में रेकार्ड तोडऩे को बेताब है दीपा : चंबल मेराथन में 84 किमी की दूरी महज पौने 10 घंटों में कर दी तय

<p>हिम्मत और मेहनत ने तराशा तो खदान से हीरा बनकर निकलीं दीपा</p>
कोटा. कार्य कोई भी हो, लक्ष्य तय करना पड़ता है, हिम्मत रखनी पड़ी है। लक्ष्य को पूरा करने के लिए दिन-रात एक करने होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे अर्जुन को सिर्फ मछली की आंख नजर आई थी। एक बार कुछ किलोमीटर की दौड़ के बाद दीपा ने भी एक एसा ही लक्ष्य तय किया है। अब वह इस लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रही है। डाबी बुधपुरा की खान में पत्थर तोड़ते-तोड़ते दीपा की तकदीर उसे कोटा ले आई और अब वह धावक बनकर देश के लिए दौडऩा चाहती है। दीपा ने हाल ही में चंबल मेराथन की 84 किमी की दूरी पौने दस घंटों में पूरी की है। उसने महिला वर्ग में पहला व महिला-पुरुष दोनों वर्गों में 8वां स्थान हाङ्क्षसल किया। सिर्फ इस चुनौती को ही दीपा ने पूरा नहीं किया। उसने जयपुर समेत अन्य जगहों पर भी उसने काबिलियत को दिखाया है।
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5वीं में पढ़ रही है दीपा
समय पर पढ़ाई हो जाए तो ठीक, उम्र निकल जाए तो बहुत मुश्किल हो जाता है। पत्थर तोडऩा, झाड़ू-पोछे का काम और गरीबी के बीच दीपा का रिश्ता जैसे पढ़ाई के साथ हुआ ही नहीं था, लेकिन अजय सेठी की मां सरोजनी सेठी ने दीपा को पढऩे के लिए प्रेरित किया। 24 वर्षीय दीपा अभी 5वीं में पढ़ रही है। वह आगे भी पढऩा चाहती है। दीपा कहती है कि उसे गर्व है कि वह इस उम्र में भी पढ़ रही है।
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जुनून है दीपा में
कोच अजय सेठी बताते हैं कि दीपा कोई भी कार्य करती है तो उसके सिर पर जैसे जुनून सवार हो जाता है। वह अपने लक्ष्य को साधने के लिए कठोर परिश्रम कर रही है। मुझे उम्मीद है यह एक दिन देश का प्रतिनिधित्व करेगी।
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दीपा की कहानी, उसी की जुबानी
मैं बुधपुरा की रहने वाली हूं। बड़ी बहनों की शादी हो गई। पिता बीमार रहने लगे तो बचपन में ही परिवार की जिम्मेदारी आन पड़ी। एक दिन बीमारी के चलते पिता भी साथ छोड़ गए। उनके बाद मेंं मां भी हमसे अलग हो गई। घर-गृहस्थी कैसे चलती, सारी जिम्मेदारी मुझपर ही आ गई। मैं डाबी बुधपुरा की खदानों पर पत्थर काटने लगी। छैनी, हथोड़ा मेरे बचपन के साथी बन गए। ये सिलसिला यूं ही चलता रहा। मेरी नानी अजय सेठी के यहां झाडू-पोछे का काम करती थी, वह एक दिन मुझे उनके पास ले आईं। बाद में वे ही मेरे कोच बने। जब मैं उनके यहां आई तो मेरी उम्र 7 वर्ष की रही होगी। नानी के साथ मैं भी झाड़ू-पोछा करने लगी। इस दौरान मैं फिर अपने गांव आ गई। दोबारा जब लौटी तो मैंने कोच सेठी को देखा। वह रोज दौड़ लगाने जाते हैं। मेरे मन में भी उनके साथ दौड़ लगाने की जिज्ञासा हुई। मेने उनसे साथ ले जाने को कहा। शुरुआत में तो मैं कुछ दूरी पर दौडऩे पर थक गई। कोच ने शायद मेरे होंसले को देख लिया था, उन्होंने मुझे आगे बढऩे का लक्ष्य दिया। इसके साथ ही मैंने दौड़ को जीवन का लक्ष्य बना लिया। अब मैं रोजाना 15 से 20 किलोमीटर दौड़ती हूं। अब मेरा सपना देश के लिए दौड़कर नाम रोशन करने का है।
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ठान लो तो कुछ भी मुश्किल नहीं
खु दी ही कर बुलंद इतना कि खुदा बंदे से पूछे…बता तेरी रजा क्या है…शेर का जिक्र करते हुए दीपा यादव बताती हैं कि चाहे खदानों में चट्टानों को तोड़कर टुकड़ों में बांटने का सवाल हो या दौड़…मेहनत, लगन और धैर्य से ही लक्ष्य की प्राप्ति संभव है। दीपा अपने भविष्य को निखारने के लिए प्रतिदिन कड़ी मेहनत कर रही है। उसे उम्मीद है कि उसकी यह मेहनत एक दिन जरूर रंग लाएगी।
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