आइए मिलते हैं देश के पहले लाठी विलेज से, यहाँ हर घर लाठियों के लिए है मशहूर

इस गांव में लाठियों के बूते चलता है परिवार का खर्च
पीढ़ी दर पीढ़ी पुश्तैनी धंधे में लगे हैं कई दर्जन परिवार
पिछले 50 सालों से चल रहा है लाठी बनाने का कारोबार।
यहां बनाई हुई लाठियां यूपी के कई जिलो में बिकती हैं।

पत्रिका न्यूज नेटवर्क

 

शिवनंदन साहू

कौशांबी. एक जमाना था जब लाठी व लठैतों के दम पर किसी को भी झुका दिया जाता था। आधुनिकता के इस दौर में सब कुछ बदला तो लाठियां भी गुजरे जमाने की चीजें होती चली गईं। हालांकि कौशांबी जिले में एक गांव ऐसा है जहां आज भी अपनी लाठियों के लिये मशहूर है। यहां की लाठियां यूपी के कई जिलों में बिकती हैं। इससे बड़ी संख्या में लोगों का रोजगार जुड़ा हुआ है। यही वजह है कि इसे लाठियों का मुहल्ला के नाम से जाना जाता है। प्रयागराज कानपुर हाईवे पर स्थित मूरतगंज कस्बे में लगभग दो दर्जन परिवार एक से बढ़कर एक बेहद खूबसूरत लाठी तैयार करते हैं। इनकी लाठियों की बिक्री कौशांबी समेत आसपास के एक दर्जन के बाजारों में होती है। बाकायदा मूरतगंज की लाठियां मांगी जाती हैं। कोई तीज त्यौहार होता है तो मेले में इनकी लाठियां खूब बिकती हैं।

 

कौशांबी जनपद के ऐतिहासिक कस्बे में मूरतगंज में पिछले पांच दशक से लाठी बनाने का कारोबार होता है। इस कस्बे में तकरीबन दो दर्जन परिवार लाठी बनाने में महारत हासिल किए हुए हैं। बांस की बेहतरीन लकड़ियों से सुंदर नक्काशीदार लाठियां बनायी जाती हैं।लाठी बनाने वाले रमेश कुमार की मानें तो विशेष किस्म का तैयार बांस लाठियां बनाने के लिये इस्तेमाल में लाया जाता है। टेढ़े-मेढ़े बांस को आग की धीमी लपटों के बीच रखकर उसे सीधा किया जाता है। बांस को जब आग की लपटों के बीच रखा जाता है और उस पर दबाव बनाकर उसे सीधा किया जाता है तो वह लाठी का शक्ल लेती है। आग की धीमी लपटों से ही लाठियों में डिजाइन भी बनती है। एक लाठी बनाने में करीब आधा घंटे का समय लगता है। एक कारीगर दिन भर में बीस से पच्चीस लाठी तैयार करता है। लाठी बनने के बाद उस पर नक्काशी की जाती है जो उभर कर लाठियों को बेहद खूबसूरत बनाती है।

 

कस्बे के हरिमोहन कहते हैं कि उनको यह पुश्तैनी कारोबार संभालना अच्छा लगता है। आधुनिकता के इस दौर में तरह तरह के अस्त्र-शस्त्र भले ही न दिखाई देते हों लेकिन लाठी का आज भी अपना अहम स्थान है। लाठी बनाने वाले बुजुर्ग कारीगर घनश्यामदास बताते हैं कि जब भी कोई मेला लगता है तो वहां लाठियों की खरीद फरोख्त अधिक होती है। किसी भी मेले से पहले कारीगर उसके लिये लाठियां तैयार करने में जुट जाते हैं। कई लाठी कारोबारियों ने काम करने के लिए कुछ युवकों को रखा है। ऐसे कामगारों को तीन से चार सौ रुपये प्रतिदिन दिहाड़ी भी मिलती है। तैयार लाठी की कीमत सौ से लेकर दो सौ रुपये तक होती है।


आत्मनिर्भर बन गए हैं लाठी कारोबारी

सरकार जब कोविड-19 काल में लोगों को आत्मनिर्भर बनने की सीख दे रही है तो ऐसे मे लाठी कारोबारियों को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। तमाम झंझावात व मुश्किलों के दौर से गुजरने के बावजूद भी लाठी कारोबारी अपने पुश्तैनी धंधे को आगे बढ़ा रहे हैं। आत्मनिर्भरता की मिसाल इनसे अच्छा कौन हो सकता है। जिस तरह से यह कारोबार पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रहा है उससे लोगों को सीख लेने की जरूरत है।

 

बिना सरकारी मदद के आगे बढ़ रहा है कारोबार

मूरतगंज कस्बे के दो दर्जन परिवार लाठी बनाने का कारोबार करते हैं। इन कारोबारियों में से कई परिवार ऐसे हैं जिन्होंने विभिन्न सरकारी बैंकों में लोन के लिए अप्लाई किया है ताकि वह अपने कारोबार को बेहतर तरीके से आगे बढ़ा सकें। पर बैंक की नीतियों के चलते लाठी कारोबारियों को लोन की सुविधा नहीं मिली। जिससे यह अपने पुश्तैनी धंधे को जैसे तैसे आगे बढ़ा रहे हैं। सरकार एक ओर जहां आत्मनिर्भर बनाने के लिए युवाओं को तरह-तरह के लोन दिलाने का दावा करती है तो वहीं कस्बे के इन लाठी की कारोबारियों को किसी तरह की सरकारी इमदाद नहीं मिली है।

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