Sofiya Lauren आज भी फिल्मों में सक्रिय, जीवन चलने का नाम

सोफिया लॉरेन ( Sofiya Lauren ) की जिंदगी का सफर उन परी कथाओं जैसा है, जिनमें एक गरीब लड़की का बचपन मुश्किलों और तकलीफों के बीच कदमताल करते हुए कटता है।

<p>सोफिया लॉरेन आज भी फिल्मों में सक्रिय, जीवन चलने का नाम</p>

-दिनेश ठाकुर
किसी जमाने में, जब फिल्में सिर्फ सिनेमाघरों में देखने को मिलती थीं, भारत के कुछ बड़े शहरों में हर रविवार को विदेशी फिल्मों के विशेष शो रखे जाते थे। अगर फिल्म की नायिका मर्लिन मुनरो, रीटा हेवर्थ, कैथरीन हेपबर्न, ग्रेटा गार्बो या सोफिया लॉरेन ( Sofiya Lauren ) में से कोई है, तो तय था कि देर से पहुंचने पर सिनेमाघरों के बाहर ‘हाउस फुल’ का बोर्ड लटका मिलेगा। भारतीय दर्शक इन विदेशी नायिकाओं के दीवाने थे। यह वह दौर था, जब भारतीय फिल्मों में मधुबाला, मीना कुमारी, नर्गिस, वैजयंतीमाला, नूतन, गीता बाली, सुरैया, वहीदा रहमान आदि के सितारे बुलंद थे। इनमें से कई अब दुनिया में नहीं हैं और बाकी काफी पहले फिल्मों से विदा हो चुकी हैं। लेकिन हॉलीवुड में सोफिया लॉरेन आज भी सक्रिय हैं। सोमवार को उन्होंने 86वीं सालगिरह मनाई। इस उम्र में भी वे ‘जीवन चलने का नाम’ के मंत्र पर अमल कर रही हैं। जल्द ही अपने निर्देशक बेटे एडॉर्डो पोंटी की फिल्म ‘द लाइफ अहेड’ में वे अदाकारी के नए रंग बिखेरेंगी।

सोफिया लॉरेन की जिंदगी का सफर उन परी कथाओं जैसा है, जिनमें एक गरीब लड़की का बचपन मुश्किलों और तकलीफों के बीच कदमताल करते हुए कटता है। फिर अचानक वक्त जादू की छड़ी घुमाता है और यह लड़की राजकुमारी बनकर घुटन वाले छोटे मकान से सीधे महल में पहुंच जाती है। इटली में जन्मीं सोफिया को अपनी मां की नाजायज संतान होने के कारण बचपन में बहुत कुछ सहना पड़ा। वह इतनी दुबली-पतली थीं कि स्कूल में उन्हें ‘टूथ पिक’ कहकर चिढ़ाया जाता था। चिढ़ाने वालों का इतिहास में कोई नामो-निशान नहीं होता, चिढऩे वाले जरूर इतिहास रच देते हैं। इतिहास रचने से पहले सोफिया लॉरेन को दूसरे विश्व युद्ध के दौरान लम्बा त्रास झेलना पड़ा। गुजर-बसर के लिए उनकी मां पब चलाती थीं और सोफिया पर वेट्रेस के अलावा ग्राहकों के जूठे बर्तन साफ करने की जिम्मेदारी थी। बचपन का यह हिस्सा नायिका बनने के बाद भी सोफिया की यादों में धड़कता रहा। ‘टू वीमैन’ (1960) में उनकी लाजवाब अदाकारी के पीछे इन्हीं यादों का प्रभाव है।

सोफिया लॉरेन को ऑस्कर अवॉर्ड तक पहुंचाने वाली ‘टू वीमैन’ इटली के फिल्मकार वितोरियो डी सीका ने बनाई थी, जो इससे पहले नव यथार्थवादी ‘द बाइसिकिल थीफ’ (1950) बनाकर अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बटोर चुके थे। ‘द बाइसिकिल थीफ’ देखकर ही भारतीय फिल्मकार सत्यजित रे को ‘पाथेर पांचाली’ बनाने की प्रेरणा मिली। ‘टू वीमैन’ मां-बेटी के रिश्तों की कहानी है। सोफिया लॉरेन मां के किरदार में हैं। फिल्म एक मां की आंखों से युद्ध की तबाही देखती है और तल्ख अंदाज में साबित करती है कि युद्ध में सबसे ज्यादा महिलाओं को ही झेलना पड़ता है। दूसरे विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि वाली इस फिल्म में बमबारी के बीच भूखी-प्यासी मां-बेटी एक वीरान गिरजाघर में पनाह लेती हैं। वहां से गुजरते कुछ फौजियों की नजर उन पर पड़ती है। पहले मां-बेटी के साथ मारपीट होती है। फिर दोनों के साथ बलात्कार किया जाता है। बाद में मां-बेटी एक गांव में पहुंचती हैं, जहां नई मुसीबतों का सिलसिला शुरू हो जाता है।

यूं सोफिया लॉरेन के खाते में करीब सौ फिल्में दर्ज हैं, ‘टू वीमैन’ ने उन्हें अमर कर दिया। इस फिल्म में बतौर अभिनेत्री वे उसी चरम पर हैं, जहां ‘मदर इंडिया’ में नर्गिस नजर आती हैं।

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