देशभर में फेमस है यहां की रॉयल दिवाली, कुछ इस तरह होता है सेलीब्रेशन
सिंधिया राजघराने में खास है त्योहार
ग्वालियर देश और दुनिया में अपनी ऐतिहासिक इमारतों के लिए ही नहीं जाना जाता है। यहां के कल्चर और त्योहार भी देश में अहम स्थान रखते हैं। इनमें से एक था दशहरा सेलिब्रेशन, जिसको देश में मैसूर,कुल्लू मनाली के समकक्ष ही माना जाता था। सिंधिया राजपरिवार से जुड़ा ये समारोह पूरे शहर में दर्शन का केंद्र होता है।
सिंधिया राजघराने में खास है त्योहार
ग्वालियर देश और दुनिया में अपनी ऐतिहासिक इमारतों के लिए ही नहीं जाना जाता है। यहां के कल्चर और त्योहार भी देश में अहम स्थान रखते हैं। इनमें से एक था दशहरा सेलिब्रेशन, जिसको देश में मैसूर,कुल्लू मनाली के समकक्ष ही माना जाता था। सिंधिया राजपरिवार से जुड़ा ये समारोह पूरे शहर में दर्शन का केंद्र होता है।
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झलक देखने आते है हजारों लोग
दिवाली के दिन लोग सडक़ों पर अपने प्यारे महाराजा को देखने के लिए उमड़ते है। जिसमें तत्कालीन महाराजा चांदी की बग्गी में सवार होकर निकलते थे। शाही पोशाक में उनके साथ राज परिवार के सदस्य और जागीरदार व सरदार भी साथ रहते थे। दशहरे का ये जूलूस जय विलास पैलेस से शुरू होता था और महाराज बाड़े तक पहुंचता था।
झलक देखने आते है हजारों लोग
दिवाली के दिन लोग सडक़ों पर अपने प्यारे महाराजा को देखने के लिए उमड़ते है। जिसमें तत्कालीन महाराजा चांदी की बग्गी में सवार होकर निकलते थे। शाही पोशाक में उनके साथ राज परिवार के सदस्य और जागीरदार व सरदार भी साथ रहते थे। दशहरे का ये जूलूस जय विलास पैलेस से शुरू होता था और महाराज बाड़े तक पहुंचता था।
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इस दौरान राजा प्रजा का अभिवादन करते चलते थे। सन 1961 जीवाजी राव सिंधिया के समय तक यह पंरपरा यूं ही बनी रही। अब वैसी शान और शौकत तो सडक़ों पर नहीं दिखती,लेकिन मांढरे की माता मंदिर पर सिंधिया परिवार के ज्योतिरादित्य सिंधिया शमी के पेड़ को काटकर त्योहार को मनाते हैं। इस दौरान शहर के गणमान्य लोगों सहित उनके राज्य से जुड़े रहे सरदारों के परिजन समारोह में शामिल होते हैं और धूमधाम के साथ इस त्योहार का सेलीब्रेशन किया जाता है।
इस दौरान राजा प्रजा का अभिवादन करते चलते थे। सन 1961 जीवाजी राव सिंधिया के समय तक यह पंरपरा यूं ही बनी रही। अब वैसी शान और शौकत तो सडक़ों पर नहीं दिखती,लेकिन मांढरे की माता मंदिर पर सिंधिया परिवार के ज्योतिरादित्य सिंधिया शमी के पेड़ को काटकर त्योहार को मनाते हैं। इस दौरान शहर के गणमान्य लोगों सहित उनके राज्य से जुड़े रहे सरदारों के परिजन समारोह में शामिल होते हैं और धूमधाम के साथ इस त्योहार का सेलीब्रेशन किया जाता है।
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दिवाली के मौके पर सिंधिया शासक जय विलास पैलेस में गेट टुगेदर रखते थे। जहां उनके करीबियों सहित व्यापारी वगज़् के प्रतिष्ठित लोग शिरकत करते थे और सभी त्योहार की खुशियां बांटते थे। तत्कालीन ढोलीबुआ महाराज कहते हैं कि उनके पिता बताते थे, उस वक्त शहर में खुशी का माहौल होता था। पैलेस को विशेष तरह से सजाया जाता था। दिए जलाए जाते थे। उन दिनों सडक़ों की रौनक भी देखते ही बनती थी। हमारे जमाने में उत्साह तो है। मगर चमक नहीं दिखती।
दिवाली के मौके पर सिंधिया शासक जय विलास पैलेस में गेट टुगेदर रखते थे। जहां उनके करीबियों सहित व्यापारी वगज़् के प्रतिष्ठित लोग शिरकत करते थे और सभी त्योहार की खुशियां बांटते थे। तत्कालीन ढोलीबुआ महाराज कहते हैं कि उनके पिता बताते थे, उस वक्त शहर में खुशी का माहौल होता था। पैलेस को विशेष तरह से सजाया जाता था। दिए जलाए जाते थे। उन दिनों सडक़ों की रौनक भी देखते ही बनती थी। हमारे जमाने में उत्साह तो है। मगर चमक नहीं दिखती।
किलों में लक्ष्मी का वास
सिंधिया महल में ऐसे दो किले हैं,जिनकी पूजा हर वर्ष दिवाली पर की जाती है। इसके लिए बाकायदा दशहरा से तैयारी होती है और इन दोनों ही किलों की रंगाई-पुताई होती है। इनमें एक किला है रानी महल परिसर में और दूसरा है जयविलास पैलेस के मुख्य द्वार के नजदीक। राधेश्याम ने बताया कि इन मिट्टी के किलों के पूजा का सबसे खास महत्व मराठाओं में है। ऐसी मान्यता है कि यह किलों में लक्ष्मी का वास होता है। इसलिए दिवाली पर सबसे पहले इन किलों का पूजन किया जाता है। इन मिट्टी के किलों को धन, धान्य का प्रतीक माना जाता है। इसलिए इसकी पूजा हर वर्ष सिंधिया परिवार के सदस्य करते हैं।
सिंधिया महल में ऐसे दो किले हैं,जिनकी पूजा हर वर्ष दिवाली पर की जाती है। इसके लिए बाकायदा दशहरा से तैयारी होती है और इन दोनों ही किलों की रंगाई-पुताई होती है। इनमें एक किला है रानी महल परिसर में और दूसरा है जयविलास पैलेस के मुख्य द्वार के नजदीक। राधेश्याम ने बताया कि इन मिट्टी के किलों के पूजा का सबसे खास महत्व मराठाओं में है। ऐसी मान्यता है कि यह किलों में लक्ष्मी का वास होता है। इसलिए दिवाली पर सबसे पहले इन किलों का पूजन किया जाता है। इन मिट्टी के किलों को धन, धान्य का प्रतीक माना जाता है। इसलिए इसकी पूजा हर वर्ष सिंधिया परिवार के सदस्य करते हैं।