जांबाज स्वतंत्रता सेनानियों ने यहां बनाई थी रणनीति, भागने को मजबूर हो गए थे अंग्रेज

आजादी का 74वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रस्तुत है आजादी के किस्से….।

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विदिशा। भारत अपनी आजादी का 74वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। देशभर में खुशियां मनाई जा रही है। आजादी के लिए शहीदों का बलिदान याद किया जा रहा है, वहीं कुछ किस्से भी याद किए जा रहे हैं, जिन्होंने हिन्दुस्तान की आजादी में अपना योगदान दिया। ऐसा ही एक किस्सा विदिशा का भी है। यहां आजादी और देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वालों को आज भी याद किया जाता है।

 

विदिशा की रामकुटी एक ऐसा भवन है जिस के सामने से गुजरने वालों का सीना गर्व से फूल जाता है। यह भवन की ईंट, दरवाजे यहां तक की खिड़कियां भी इस बात की गवाही देती हैं कि यहां बाबू रामसहाय आजादी के आंदोलन की रूपरेखा तैयार करते थे। यहां गुप्त रूप से कई बार आंदोलनकारियों की मीटिंग होती थीं। उनके कमरे में आज भी रौब से दमकते चेहरे वाले बाबू रामसहाय और उनसे जुड़ी कई तस्वीरें मौजूद हैं, जो अहसास कराती हैं कि वे आज भी यहीं-कहीं हैं।

 

100 साल पुराना है यह भवन :-:

1912 में बनी यह इमारत आज भी अपने पुराने स्वरूप में ही मौजूद है। बीच बाजार में मौजूद रामकुटी नाम का इस भवन में अब भी बाबू रामसहाय का परिवार रहता है। केवल भवन ही नहीं बल्कि अंदर का फर्नीचर भी पुराने दौर की याद दिलाता है। वह पलंग, आरामकुर्सी भी मौजूद है, जहां बाबू रामसहाय विश्राम करते थे। बाबू राम सहाय नगरपालिका के पहले अध्यक्ष रहे। 1920 में कांग्रेस से जुड़े। महात्मा गांधी और पं. जवाहरलाल नेहरू के संपर्क में आ गए।

बाबू रामसहाय ने रामकुटी में ही राज्य के तमाम प्रतिनिधियों को बुलाया और यही पर तय हुई आंदोलन की रणनीति। 1942 में ग्वालियर स्टेट में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई तो उसकी रणनीति बनाने से लेकर आंदोलन की शुरुआत इसी भवन से शुरू हुई थी। यह वही रामकुटी है जहां शराबबंदी के लिए भी निर्णायक फैसला हुआ था। बाबू रामसहाय द्वारा छेड़े गए जनआंदोलन के कारण ग्वालियर स्टेट में विदिशा पूर्ण मद्यनिषेध वाला पहला जिला बना।

 

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विधानसभा के अध्यक्ष भी बने :-:

बाबू रामसहाय कांस्टीट्येंट एसेंबली ऑफ इंडिया के सदस्य रहे, वे राज्य सभा के तीन बार उपसभापति रहे। मध्य भारत विधानसभा के अध्यक्ष के रूप में भी चर्चित रहे। मध्यभारत के मुख्यमुंत्री बाबू तख्तमल जैन से उनकी मित्रता थी। शिक्षा-सिंचाई में दोनों ने मिलकर बहुत काम किया। रामसहाय के पोते हरीश वर्मा और बहू अलका वर्मा अपने दादा की इस विरासत को सहेजे हुए हैं। इसी तरह बाबू रामसहाय के पक्के दोस्त बाबू तख्तमल जैन का मकान भी माधवगंज प्याऊ के पास मौजूद है। उस घर में भी तख्तमल जी की यादें हर कमरे में जैसे सहेजी गई हैं।

साहित्यकार बताते हैं कि राजनीति में बाबू रामसहाय और बाबू तख्तमल एक दूसरे के बिल्कुल पूरक थे। रामकुटी में ही स्वतंत्रता आंदोलन की रणनीति तय होती थी। मध्यप्रदेश गठन और भोपाल को राजधानी बनाने का फैसला भी इसी रामकुटी में हुआ था। देवलिया कहते हैं कि यह गर्व की बात है कि दोनों परिवार आज भी अपने पुरखों की यादों के साथ ही स्वतंत्रता के आंदोलन की ये यादें सहेजे हुए है।

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