हाड़ौती से जर्मनी तक पहुंची हमारी लोक कला ‘माण्डणा’

बारां की कौशल्या देवी ने बढ़ाया देश, विदेश में प्रदेश का गौरव

<p>हाड़ौती से जर्मनी तक पहुंची हमारी लोक कला &#8216;माण्डणा&#8217;</p>
बारां. माण्डणा वेदों में वर्णित माण्डय कला का अपभ्रंश है। मूलत: राजस्थान की इस लोक संस्कृति को अन्तरराष्ट्रीय पटल तक पहुंचाने का गौरव बारां निवासी कौशल्या देवी शर्मा को मिला। दरअसल यह कला सदियों पुरानी है। लेकिन इसे सहेजने में कौशल्या देवी की पारम्परिक व पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ बचपन से उनकी जिज्ञासा ने इस लोक कला को आधुनिक युग में नई पहचान दी है। 1942 में कोटा जिले की तहसील लाडपुरा के अरण्डखेड़ा गांव में प्रभूलाल वशिष्ठ की धर्मपत्नी कमला देवी के घर जन्मी कौशल्या देवी का नाम राजस्थान की इस लोक संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए भी जाना जाता है। यह पारिवारिक विरासत उन्होंने अपनी मां से सीखी। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक माण्डणे बनाने तथा उनको परिभाषित करने वाले लोग गीत गुनगुनाने शुरू किए। शादी के बाद बारां आई तो यहां भी उन्होंने अनुकूल माहौल मिला और अब उम्र के आठवें दशक के अन्तिम पायदान पर पहुंचने के बाद भी उनका माण्डनों के प्रति लगाव कम नहीं होना उनकी जीजीविषा का जीता-जागता प्रमाण माना जा सकता है। वे इस कला के लिए लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से भी सम्मानित हो चुकी है। जर्मनी की एक शोधार्थी छात्रा ने तो बारां में सात दिन उनके घर पर रहकर ‘माण्डणाÓ को सीखकर गई हैं।
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चार प्रकार के माण्डणे
कौशल्या देवी का कहना है कि माण्डणे और उनसे सम्बन्धित लोक गीत, इनकी अन्र्तकथाएं, घरों में बनाने का स्थान, ऋतु, पर्व व और तीज-त्योहार के लिए विशेष महत्व होता है। माण्डने चार प्रकार के होते हैं। इनमें वास्तु आधारित, तिथि आधारित, पर्व आधारित और स्थान आधारित। बकौल कौशल्या देवी वे लगभग 600 प्रकार के माण्डणे उकेरने के साथ इनसी जुड़ी लोक मान्यताएं व अधिकांश गीत उन्हें कंठस्थ हैं।
कई शहरों में कार्यशालाएं
माण्डणा कला को प्रदर्शित करने के लिए इंटैक व स्पिक मैके की ओर से कौशल्या देवी को कई शहरों में आयोजित कार्यशालाओं में आमन्त्रित किया जा चुका है। ख्यातनाम शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खान, उस्ताद नईमुद्दीन, फहीमुद्दीन, डागर व कथक सम्राट पंडित बिरजू महाराज, फिल्म निर्देशक पंकज निहालनी, फिरोज खान, फारूख शेख, शबाना आजमी व मोहन वीण के आविष्कारक पंडित विश्वमोहन भट्ट समेत कई हस्तियां इन कार्यशालाओं में सहभागी रहे और इन सभी ने इस लोक कला को सराहा।
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संस्कृति का अंग
वे बताती हंै कि माण्डणे वैदिक संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। कई माण्डणे ऐसे हैं, जो घर में सुख, समृद्धि तथा ऐश्वर्य का प्रतीक होते हैं। 18 माण्डने ऐसे हैं, जिनको समय, काल व रीति अनुसार बनाने सम्बन्धित समस्याएं दूर होती हैं। माण्डणे घर ही नहीं खलिहानों में भी बनाए जाने की परम्परा हाड़ोती अंचल में है।
धन-धान्य का प्रतीक है ‘तबकूड़ो’
हाड़ोती में अरसे पहले खळियानों में ‘तबूकड़ोंÓ नामक माण्डणा उकेरा जाता था। इसका निहितार्थ फसल उत्पादन अच्छा होने का होता है। विवाह के समय घर की दहलीज पर ‘बहू पसारोÓ माण्डना बनाने का निहितार्थ नई वधु के परिवार को सुख देने वाली होना होता है। माण्डनों के बारे में विस्तार से जानकारी देने के बाद जब कौशल्या देवी से इनके अर्थ को समझाने वाले लोक गीतों पर चर्चा शुरू की तो उन्होंने मार-ज्वारा का …चली आई लट छटकाय…गीत गुनगुनाया।
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