गुना. जिले के आसपास पुरासंपदा विखरी पड़ी है लेकिन उसे संरक्षित नहीं किया
जा रहा है, बजरंगगढ़ के किला, मालपुर, गादेर और सांदोल की गुफाएं अभी भी
अपने इतिहास का खुद व खुद वर्णन कर रहीं है। इन तमाम एतिहासिक स्थानों में
से पुरातत्व विभाग ने एक मात्र बजरंगगढ़ के किला को सरंक्षित करने का बीड़ा
उठाया है। जबकि चांचौड़ा के किला को संरक्षित करने की मांग लंबे समय से की
जा रही है।
जिला मुख्यालय से आठ किलोमीटर दूर बजरंगगढ़ का किला सुरम्य
पहाड़ी पर मौजूद है। इसके अतीत के बारे में बताया जाता है कि लगभग 1710 के
आसपास इसे बनवाया गया था। इस दौरान मराठों और राघौगढ़ राजवंश का इस पर
कब्जा रहा। देख रेख के अभाव में अतिप्राचीन किला जर्जर होने की स्थिति में
आग गया था। इसके बाद पुरातत्व विभाग ने इस किलो को अपने अधीन कर लिया है।
इसके बाद किले के बुर्ज,रानी महल, और बाउंड्रीवाल को बनाया जा रहा है। इस
पर 220 करोड़ रुपए का खर्च आ रहा है।
प्राचीन अस्तित्व लौटाने का प्रयास
बताया जाता है कि इस किला को एक बार फिर उसके प्राचीन अस्तित्व में लौटाने
का प्रयास किया जा रहा है।जिससे इसकी एतिहासिकता बनी रहे। किला जमीन से
लगभग 92.3 मीटर ऊचाई पर है। इसके पास से नदी गुजरती है। इसमें स्थित
प्राचीन वावड़ी तोप और खुद व खुद अपने गौरवशाली इतिहास का बयान कर रहा है।
वर्षों तक किले के जीर्णोद्वार पर ध्यान नहीं दिया। 2011 में इसे पुरात्व
विभाग ने अपने अधीन लिया और 2014 से काम शुरु कर दिया।
सहेजकर दिया जा रहा भव्य रूप
लगभग 800 साल प्राचीन बजरंगगढ़ स्थित श्री शांतिनाथ दिगंबर जैन मंदिर का
जीर्णोद्धार कर पुरातत्व को सहेजने का प्रयास किया जा रहा है. इस प्राचीन
और अतिशयकारी मंदिर का जीर्णाेद्धार का जिम्मा मुनि पुंगव सुधा सागर
महाराज ने उठाया है। इस बारे में श्री शांतिनाथ दिगंबर जैन पुण्योदय
तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष एसके जैन बताते हैं कि इस मंदिर की स्थापना
विक्रम संवंत 1236 फाल्गुन सुदी 6 को सेठ पाड़ाशाह ने गुरू गुणधर आचार्य के
सानिध्य में कराई थी।
तब से तब ये यह मंदिर तमाम आंधी-तूफानों के साथ
मुगलों के आक्रमणों को झेलते हुए चट्टन की तरह खड़ा रहा।लेकिन पिछले कुछ
सालों से मंदिर का चूना और प्लास्टर निकलने के कारण यहां जीर्णोद्धार की
जरूरत महसूस हुई। जिसे मुनि सुधा सागरजी महाराज के निर्देशन में वर्ष 2013
में शुरू किया. जिसमें प्रसिद्ध पुरातत्वविद्, आर्किटेक्ट एवं इंजीनियर्स
ने अपना योगदान देकर उसके प्राचीन महत्व को ज्यों का त्यों रखते हुए
पुरातत्व से जोड़कर नया रूप दे रहे हैं।बताया जाता है कि जीर्णोद्धार कार्य
में प्राचीन तकनीक का ही इस्तेमाल किया जा रहा है. इसी के चलते इसमें
सरिया का उपयोग नहीं किया गया है. मंदिर के पुरातत्व महत्व को बचाते हुए
निर्माण कार्य जोरशोर से चल रहा है. तीन वर्ष में मंदिर को नया रूप देने की
कोशिश की जा रही है। इसका काम प्रगति पर है।