लोकसभा का चुनावी महासमर – राजवंशी, मतुआ चेहरे की कमी, अल्पसंख्यक मतों में सेंध से सकते में तृणमूल
प्रदेश की 42 लोकसभा सीटों को लेकर तृणमूल कांग्रेस ने चुनावी गणित बिठाना शुरू कर दिया है। तृणमूल कांग्रेस की सबसे बड़ी चिंता उत्तर बंगाल में राजवंशी चेहरे की कमी, दक्षिण बंगाल के बड़े हिस्से में मतुआ मतों में बिखराव और राज्य की एक दर्जन से ज्यादा सीटों पर अल्पसंख्यकों का बदलता मिजाज है।
लोकसभा का चुनावी महासमर – राजवंशी, मतुआ चेहरे की कमी, अल्पसंख्यक मतों में सेंध से सकते में तृणमूल
कोलकाता. प्रदेश की 42 लोकसभा सीटों को लेकर तृणमूल कांग्रेस ने चुनावी गणित बिठाना शुरू कर दिया है। तृणमूल कांग्रेस की सबसे बड़ी चिंता उत्तर बंगाल में राजवंशी चेहरे की कमी, दक्षिण बंगाल के बड़े हिस्से में मतुआ मतों में बिखराव और राज्य की एक दर्जन से ज्यादा सीटों पर अल्पसंख्यकों का बदलता मिजाज है। राजवंशी, मतुआ और अल्पसंख्यक इन तीन वर्गों के मतों का राज्य की 42 में से 25 सीटों पर बड़ा प्रभाव पडऩे वाला है। भाजपा को उसके वर्ष 2019 के प्रदर्शन दोहराने से रोकने की चुनौती ले बैठी तृणमूल कांग्रेस की चिंता यहीं खत्म नहीं होती उसे आइएनडीआइए गठबंधन में शामिल कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों का भी दबाव सहना पड़ेगा। भाजपा से कांटे के मुकाबले वाली सीटों पर कांग्रेस-माकपा गठजोड़ उसका समीकरण बिगाड़ सकता है। इसके साथ ही तृणमूल कांग्रेस को अल्पसंख्यक बहुल मतदाताओं वाली लोकसभा सीटों पर आइएसएफ की सेंध से भी चुनौती मिलने वाली है।
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अनंत राय को राज्यसभा भेजकर भाजपा ने चली चाल
उत्तर बंगाल के छह जिलों की आठ लोकसभा सीटों में से सात पर कोच-राजवंशी समुदाय प्रभावशाली है। भाजपा ने इस साल राज्य से अपना पहला राज्यसभा सांसद इसी समाज के अनंत राय महाराज को चुनकर भेजा है। जो ग्रेटर कूचबिहार पीपुल्स एसोसिएशन के एक बड़े धड़े के प्रमुख हैं। वे 18 लाख से ज्यादा आबादी वाले कोच राजवंशी समुदाय के एक बड़े धार्मिक नेता है। अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाले अनंत राय के समुदाय की जनसंख्या उत्तर बंगाल की जनसंख्या की तीस फीसदी है। अनंत महाराज अलग कूचबिहार राज्य की मांग करते रहे हैं, हालांकि उनकी इस मांग को मुख्यधारा के किसी भी बड़े राजनीतिक दल का समर्थन नहीं है। भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग साधते हुए एक दशक से इस समाज के भीतर अपनी साख तैयार की है। जिसका असर यहां के चुनावी नतीजों पर भी देखा जाता रहा है। वर्ष 2021 में हुए विधानसभा चुनाव में उत्तर बंगाल की 54 में से 30 विधानसभा सीटों पर भाजपा के प्रत्याशियों की जीत हुई थी। वहीं वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को यहां की आठ में से सात सीटों पर जीत मिली थी।
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मतुआ नेता दे रहे तृणमूल नेतृत्व को लगातार चुनौती
दक्षिण बंगाल के कई जिलों मसलन नदिया, उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना की कई सीटों पर मतुआ मत प्रभावशाली हैं। तीन करोड़ की जनसंख्या वाले इस समुदाय का राजनीतिक वर्चस्व विधानसभा की 292 सीटों में से 70 पर और लोकसभा की 42 में से 10 सीटों पर हैं। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने इन दस सीटों में से चार सीटों पर जीत हासिल की थी। इसी समुदाय से बनगांव सांसद व मतुआ महासंघ के पदाधिकारी शांतनु ठाकुर केन्द्र सरकार में राज्यमंत्री भी हैं। मतुआ महासंघ समुदाय का सबसे बड़ा धार्मिक संगठन है। जिसका मुख्यालय उत्तर 24 परगना के ठाकुरनगर में है। परंपरागत रूप से समुदाय का धार्मिक नेतृत्व गैर राजनीतिक रहा है। मौजूदा दशक में पहले तृणमूल कांग्रेस और बाद में भाजपा ने इस समुदाय के धार्मिक नेताओं और संत हरिचांद गुरुचांद की विरासत संभाल रहे ठाकुर परिवार के सदस्यों को टिकट दिया है। जिसके बाद परिवार में भी टूट हुई और संगठन में भी कहीं-कहीं दो फाड़ होता दिखा है। इन सबके बावजूद इसी साल तृणमूल कांग्रेस महासचिव अभिषेक बनर्जी मतुआ सम्प्रदाय के सबसे पचित्र माने-जाने वाले ठाकुरनगर स्थित मंदिर में प्रवेश नहीं कर पाए थे। तृणमूल को आने वाले लोकसभा चुनाव में मतुआ मतों पर भाजपा की पैठ खत्म करने की चुनौती का सामना करना ही पड़ेगा।
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सागरदिघी से दरकी अल्पसंख्यक मतों की इमारत
तृणमूल के उत्थान में सबसे बड़ी भूमिका अल्पसंख्यक मतों की मानी जाती है। राज्य की सत्ता में आने से पहले तृणमूल को शहरी अंचल की पार्टी माना जाता था। पार्टी पर कोलकाता नगर निगम के आसपास के इलाकों पर प्रभावशाली होने की बात कही जाती थी। सिंगूर और नंदीग्राम आंदोलन के कारण पार्टी ने ग्रामीण इलाकों में अपना प्रभाव बढ़ाया। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में राज्य में अल्पसंख्यकों की दयनीय हालत को सामने रखकर पार्टी ने लेफ्ट और कांग्रेस के बीच बंटे अल्पसंख्यक मतों को अपने पाले मे ंलाना शुरू किया। जिसके बाद पार्टी कोई चुनाव नहीं हारी। लेकिन वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव में अल्पसंख्यको ंके सबसे बड़े धार्मिक केन्द्र फुरफुरा शरीफ के पीरजादों का राजनीति में आना तृणमूल कांग्रेस के अल्पसंख्यक आधार को चुनौती देता नजर आया। हालांकि आइएसएफ को कोई बड़ी सफलता नहीं मिली लेकिन उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, नदिया, हावड़ा, बर्दवान समेत अल्पसंख्यकों के प्रभाव वाले इलाकों में आइएसएफ के कैडर बड़ी संख्या में तैयार हुए हैं। हालिया सम्पन्न विधानसभा चुनाव में भी कई जिलों में आइएसएफ ने जमीनी स्तर पर तृणमूल कांग्रेस को उसी की भाषा में चुनौती दी है। हालांकि आइएसएफ नवगठित आइएनडीआइए गठजोड़ का हिस्सा नहीं है लेकिन माकपा-कांग्रेस का कोई भी गठजोड़ राज्य की कई सीटों पर प्रभावशाली माने जाने वाले अल्पसंख्यकों के बीच तेजी से पैठ बना रही आइएसएफ को किनारे कर होता नहीं दिख रहा है और तृणमूल कांग्रेस की चिंता भी इसी को लेकर है। इसी साल अल्पसंख्यक बहुल सागरदिघी विधानसभा के उपचुनाव में पराजित हो चुकी तृणमूल इस मामले मे फूंक-फूंक कर कदम रख रही है।
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